वैश्वीकरण के भंवर में आदिवासी महिला संस्कृति की प्रासंगिकता एवं महत्व : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

Author(s): Gore Lal Meena

Publication #: 2210008

Date of Publication: 25.10.2022

Country: India

Pages: 24-28

Published In: Volume 8 Issue 5 October-2022

Abstract

वैश्वीकरण, एक ऐसी अवधारणा जिसमें स्थानीय वस्तुओं, उत्पादों और साथ ही व्यक्तियों, वातावरण और परिवेश को भी एक मानक वैश्विक स्वरूप में ढालने का प्रयास किया जाता है. हो सकता है कि आर्थिक राजनीतिक और सामजिक दृष्टि से बहुत लाभ हुए हो इस अवधारणा के, किन्तु इस प्रक्रिया के दूरगामी परिणाम ज्यादातर हानिकारक ही रहे. ब्रिटेन के द्वारा दुनिया भर के देशों में अपने उपनिवेश बनाए जाने के बाद उसे एक वैवीकृत साम्राज्य का दर्जा मिला. ब्रिटेन की आर्थिक महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ने के साथ ही उसने दुनिया भर के देशों से के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये बहुत से देशों पर अपना राज्य स्थापित किया वहाँ के निवासियों को गुलाम बनाया और फिर अपने औद्योगिक उत्पादों को उत्कृष्ट बता कर गुलाम देश के लोगों को सभ्य बनाने के लिए उन्हें अपने उत्पाद बचे, अब दुनिया के हर गुलाम देशों के बाजार यूरोपीय उत्पादों से पट गए और सिर्फ वही लोग सभ्य माने गए जो इन यूरुपीय उत्पादों का उपयोग कर रहे थे. अमेरिका की स्वतंत्रता के बाद अमेरिका भी यूरोप के साथ औद्योगिक होड़ में शामिल हो गया. वक्त बीतने के साथ ब्रिटिश साम्राज्य का तो सूरज अस्त हो गया लेकिन उसके फैलाए पूंजीवादी जाल का विस्तार दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था. यूरोप-अमेरिका ने अपनी वस्तुएं अपनी संस्कृति को दुनिया भर में आर्थिक लाभ कमाने के लिए फैलाने का एक नया हथकंडा अपना ष्पूरी दुनिया को एक गाँव बन जाना चाहिए- ..और इस ग्लोबल गाँव के ऐसे सब्जबाग सजाए कि बस पूरी दुनिया उसकी चमक में चौंधिया गयी कि बस अप पूरी दुनिया के लोग एक गाँव के निवासी हो जाएंगे, एक जैसा खाएगे और समृद्धि आएगी साथ समानता लाएगी. लेकिन इस श्ग्लोबल गाँवश् के बसने के पीछे की असल मंशा थी कि यूरोप-अमरीका जो बेचें वही सब खाओ पहनों, उनकी भाषा बोलो, उन्हीं के जैसा दिखने का प्रयास करो, सूट-बूट पहन के जेंटल मैन बनो भले तुम विषुवत्तीय प्रदेश के निवासी हो, चमड़ी गोरी बनाने के लिए उनके सौन्दर्य उत्पाद खरीदो और बन जाओ उनके जैसे नकली यूरोपी अमेरिकी) यूरोप या अमरीका जैसा खान-पाना, भाषा-व्यवहार, पर्यावरण परिवेश बना लेने के क्रम किया गये प्रयास के लिए ओं वर्ड सक्स्टीट्यूशनश् बना श्वैश्वीकरणश् जिसे आज कल हम श्आधुनिक और विकसित कहना भी पसंद करते हैं, असल में ये अवधारणा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध और से रोक-टोक प्रयोग को प्रत्साहन देने वाली अवधारणा है जो कि एक महाविनाश को आमंत्रित कर चुकी है. इस सन्दर्भ में जमी प्रथम कहते हैं कि ‘‘सभी संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग से हमारी ग्लोबल अर्थव्यवस्थाएं ऐसे कई संकेत दर्शा रही हैं जिनके कारण हमसे पहले कई सभ्यताएँ धराशाई हो चुकी है’’।

साहित्य जगत में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श की चर्चा के बाद अब आदिवासी विमर्श की चर्चा शुरू हो गई है। किसी भी विमर्श या चिंतन का उद्देश्य अराजकता या वैमनस्य निर्माण करना नहीं होता। विमर्श या चिंतन का प्रमुख उद्देश्य होता है किसी वर्ग विशेष का पक्षधर होना, अर्थात ऐसे वर्ग का पक्ष लेना जिसके वजूद को अन्य वर्गाे ने अपने सामने कुछ भी नहीं समझा। आज की समाज व्यवस्था मंे आदिवासी वर्ग ऐसा ही है, जो मुख्य धारा से दूर हाशियें पर रहा है। सामान्य लोगों के मन में आदिवासी समाज को लेकर कई मान्यताएँ दिखाई देती है, जैसे आदिवासी अर्थात दूर जंगलों में रहनेवाले नग्न लोग जो नरभक्षी होते हैं आदि...। अब तक उपेक्षित रहे इसी वर्ग का साहित्य व्द्ारा पक्ष लिया जा रहा है। यही है आदिवासी विमर्श।

लेकिन इस वैश्वीकरण ने जो विकास किया किया उसका परिणाम यह निकला कि दुनिया भर में जैविक और सांस्कृतिक विविधता का हास हो रहा है. आज ना हमारे पास सांस लेने लायक हवा रह गई है ना पीने लायक पानी, हजारों हजार नई बीमारियाँ पैदा हो चुकी है जिनका इलाज आम लोगों के लिए चाँद पर जाने जैसा है और सबसे ज्यादा क्षति इस श्ग्लोबल गाँवश् ने आदिवासी जनजातीय समुदायों को पहुंचाई है. आदिवासी समुदाय आदिकाल से वनों जंगलों में रहते आ रहे हैं और प्रकृति को न्यूनतम क्षति पहुंचा कर वे प्राकृतिक उत्पादों पर अपना जीवन यापन करते हैं. वे हमेशा से प्रकृति के सबसे नजदीक और प्रकृति संरक्षक बन कर रहते रहे. पहले के समयों में गैर-आदिवासियों ने भी इनकी संस्कृति या जीवन पद्धति को नष्ट करने का वैसा प्रयास नहीं किया जैसा कि इस आधुनिक पूंजीवादी युग में और ग्लोबल गाँव ने इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम देख सकते हैं कि गुलाम भारत मैं आदिवासियों के कई सशक्त विद्रोह हुए अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी आदिवासी नायकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही..

साहित्य के क्षेत्र में भी आदिवासी साहित्यकारों ने इस आधुनिक वैश्वीकृत दोहन का पूर-जोर विरोध किया. इस पर्चे का केन्द्रीय विषय वैश्वीकरण की विनाशकारी अवधारणा पर चोट करता आदिवासी महिला लेखन अतः हम यहाँ विशेष रूप से आदिवासी महिलाओं के लेखन के माध्यम से वैश्वीकरण के दुष्परिणामों को समझने का प्रयास करेंगे

वैश्वीकरण की अवधारणा के माध्यम से जो तथाकथित विकास मानक बनाए गए हैं, आज हर देश और अर्थव्यवस्था उसके दूरगामी परिणामों की चिंता किये बगैर उन मानकों को पूरा कर स्वयं को विकसित या कम से कम विकासशील की श्रेणी में दर्ज करा लेने की होड़ लगाए है. इन लूट-खसोट और विनाशक विकास प्रक्रियाओं को आइना दिखाते हुए जानी-मानी आदिवासी लेखिका महुआ माझी जी ने अपने चर्चित उपन्यास मरंग गोडा नीलकंठ हुआ में कहा है कि-‘‘तुम विकसित लोगों के पास बेशक विकास के अलग-अलग मॉडल हैं मगर हमें पूरा यकीन है कि विकास का आदिवासी मॉडल ही इस धरत को बचा सकता है. वर्ना इस धरती पर हिमयुग आने में देर नहीं लगेगी’’

Keywords: वैश्वीकरण ,महिला सांस्कृतिक विकास, सांस्कृतिक दोहन, सांस्कृतिक बचाव, सांस्कृतिक विकास

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