कृषि भूमि उपयोग और विकास: राजस्थान के संदर्भ में भौगोलिक विश्लेषण

Author(s): Ram Singh Jatav

Publication #: 2507016

Date of Publication: 04.07.2025

Country: India

Pages: 1-6

Published In: Volume 11 Issue 4 July-2025

Abstract

राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है, जिसकी भौगोलिक विविधता, जलवायु की अस्थिरता और सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएँ इसे कृषि भूमि उपयोग के संदर्भ में एक विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र बनाती हैं। यह राज्य थार के मरुस्थल, अरावली पर्वत श्रृंखला, उपजाऊ मैदान, पठारी क्षेत्र और अर्ध-शुष्क वन प्रदेशों सहित अनेक भौगोलिक रूपों को समेटे हुए है, जिससे कृषि भूमि उपयोग के स्वरूप में उल्लेखनीय भिन्नताएँ पाई जाती हैं। यहाँ की कृषि पद्धतियाँ अत्यधिक वर्षा पर निर्भर हैं और राज्य का एक बड़ा हिस्सा शुष्क तथा अर्ध-शुष्क जलवायु से प्रभावित है, जो इसे जल-संकट और सीमित कृषि संसाधनों वाला क्षेत्र बनाता है। राजस्थान की लगभग 60% जनसंख्या आज भी कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है। इसके बावजूद कृषि उत्पादन में स्थायित्व और उत्पादकता का अभाव बना हुआ है। पारंपरिक कृषि प्रणाली, तकनीकी जागरूकता की कमी, जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव, भूमिगत जलस्तर में गिरावट, और भूमि क्षरण जैसी समस्याएँ यहाँ की कृषि भूमि उपयोग व्यवस्था को निरंतर चुनौती देती हैं। विशेष रूप से राज्य के पश्चिमी जिलों जैसे जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर आदि में जलवायु की चरम स्थितियाँ, रेतीली मिट्टी और सीमित सिंचाई साधनों ने कृषि को अत्यंत अस्थिर बना दिया है। दूसरी ओर, कोटा, झालावाड़, और भरतपुर जैसे पूर्वी जिलों में अपेक्षाकृत अधिक उपजाऊ भूमि और सिंचाई सुविधाओं ने कृषि को लाभकारी बनाया है।

यह शोध-पत्र राजस्थान में कृषि भूमि उपयोग की जटिलताओं को भूगोलिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करता है। इसमें भूमि उपयोग की संरचना, प्रवृत्तियों और समय के साथ उसमें आए परिवर्तनों का विश्लेषण किया गया है। साथ ही यह शोध यह भी स्पष्ट करता है कि किस प्रकार से मानव जनित कारण, जैसे — शहरी विस्तार, औद्योगीकरण, नीतिगत असंतुलन और भू-राजनीतिक दबाव — कृषि भूमि की गुणवत्ता, उपलब्धता और उपयोगिता को प्रभावित कर रहे हैं।

अध्ययन में भूगोल-आधारित दृष्टिकोण अपनाते हुए यह दर्शाया गया है कि कृषि भूमि उपयोग केवल प्राकृतिक कारकों का परिणाम नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हस्तक्षेपों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। शोध का केंद्रीय उद्देश्य यह है कि राज्य की विभिन्न भौगोलिक इकाइयों में भूमि उपयोग के व्यवहार को समझते हुए, एक ऐसे कृषि विकास मॉडल की कल्पना की जाए जो न केवल उत्पादनशील हो, बल्कि पारिस्थितिक दृष्टि से भी टिकाऊ और सामाजिक दृष्टि से समावेशी हो।

इस शोध के माध्यम से यह भी अवलोकन किया गया है कि किस प्रकार से जलवायु परिवर्तन और भूमिगत जल संसाधनों का क्षरण, कृषि योग्य भूमि को प्रभावित कर रहा है। इस संदर्भ में यह आवश्यक हो गया है कि भूगोल आधारित योजनाओं के माध्यम से भूमि उपयोग का वैज्ञानिक मूल्यांकन कर, क्षेत्र-विशेष रणनीतियाँ विकसित की जाएँ। उदाहरणस्वरूप, पश्चिमी राजस्थान में शुष्क भूमि कृषि प्रणाली (dryland agriculture), जल संचयन तकनीकें, और जल-क्षय नियंत्रण उपायों की आवश्यकता है; वहीं पूर्वी भागों में कृषि-उद्योगीकरण और फसल विविधीकरण की संभावना अधिक है।

इस प्रकार, यह शोध-पत्र राजस्थान की कृषि भूमि उपयोग प्रणाली को बहुआयामी दृष्टिकोण से समझते हुए, उसमें सुधार और विकास की संभावनाओं की पड़ताल करता है। भूगोल की अंतर्दृष्टियों के माध्यम से प्रस्तुत यह अध्ययन न केवल क्षेत्रीय असमानताओं को उजागर करता है, बल्कि भूमि उपयोग की टिकाऊ और प्रभावी रणनीतियों की ओर भी संकेत करता है। परिणामस्वरूप, यह शोध कृषि नीति निर्माताओं, भूगोलवेत्ताओं, और पर्यावरणीय योजनाकारों के लिए भी एक उपयोगी आधार प्रदान कर सकता है।

2. शोध उद्देश्य (Objectives of the Study)

1. राजस्थान में कृषि भूमि उपयोग की वर्तमान स्थिति और भौगोलिक वितरण का अध्ययन करना।

2. भूमि उपयोग में समय के साथ आने वाले परिवर्तनों का विश्लेषण करना।

3. कृषि भूमि उपयोग को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक और मानव निर्मित कारकों की पहचान करना।

4. विभिन्न क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता और भूमि उपयोग दक्षता की तुलना करना।

5. राजस्थान में सतत कृषि विकास के लिए उपयुक्त रणनीतियों और भूगोल आधारित समाधान प्रस्तावित करना।

3. शोध पद्धति (Research Methodology)

यह शोध गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों पद्धतियों पर आधारित है। इसमें प्राथमिक और द्वितीयक दोनों स्रोतों से आंकड़े संकलित किए गए हैं। जिला-वार कृषि भूमि उपयोग के आँकड़े राजस्थान सरकार के कृषि विभाग, भू-अभिलेख और भारतीय कृषि सांख्यिकी अनुसंधान संस्थान (IASRI) से प्राप्त किए गए हैं।

GIS तकनीकों, उपग्रह चित्रण, और लैंड यूज मैप्स के माध्यम से क्षेत्रीय विश्लेषण किया गया है। साथ ही, किसान समूहों, कृषि अधिकारियों, और स्थानीय समुदायों से लिए गए साक्षात्कारों का भी विश्लेषण किया गया है।

4. राजस्थान की भौगोलिक विशेषताएँ और कृषि

राजस्थान की भौगोलिक विशेषताएँ उसकी कृषि संरचना और भूमि उपयोग व्यवस्था को निर्णायक रूप से प्रभावित करती हैं। राज्य का भू-परिदृश्य अत्यंत विविधतापूर्ण है—एक ओर विस्तृत मरुस्थल है, तो दूसरी ओर हरे-भरे पठारी और पर्वतीय क्षेत्र भी हैं। इस भूगोलिक विषमता के कारण राजस्थान में कृषि की प्रवृत्तियाँ क्षेत्र विशेष की जलवायु, मिट्टी, जल संसाधन और स्थलाकृति पर अत्यधिक निर्भर हैं।

राजस्थान का लगभग 60% भाग थार मरुस्थल से आच्छादित है, जो राज्य के पश्चिमी जिलों जैसे जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, चूरू और श्रीगंगानगर में फैला हुआ है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा मात्र 100–300 मिमी तक सीमित रहती है, जिससे कृषि उत्पादन अत्यंत अस्थिर और कम उत्पादक रहता है। यहाँ की प्रमुख मिट्टी बालुका (रेतीली) प्रकार की है, जो जल धारण क्षमता में कमजोर होती है और बार-बार की सिंचाई की आवश्यकता रखती है। इस क्षेत्र में मुख्यतः बाजरा, ग्वार, मूंगफली, चना जैसी शुष्क क्षेत्रीय फसलें उगाई जाती हैं। वर्षा पर अत्यधिक निर्भरता और भूजल का तीव्र दोहन कृषि की टिकाऊ प्रकृति को प्रभावित करता है।

इसके विपरीत पूर्वी राजस्थान अपेक्षाकृत अधिक उपजाऊ और सिंचित क्षेत्र है। कोटा, झालावाड़, बाराँ, बूंदी, टोंक, सवाई माधोपुर, दौसा और भरतपुर जैसे जिलों में औसतन 600–1000 मिमी वर्षा होती है और यहाँ की मिट्टी काली कपास वाली, दोमट एवं जलधारण क्षमता वाली होती है। इन जिलों में चंबल, बनास, पार्वती, गंभीरी और काली सिंध जैसी नदियाँ सिंचाई के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत प्रदान करती हैं। इस क्षेत्र में गेहूँ, सरसों, चना, धान, गन्ना, मक्का और सब्जियों जैसी फसलों की बहुलता देखी जाती है। कोटा क्षेत्र 'धान की कटोरी' और 'गन्ना उत्पादक बेल्ट' के रूप में प्रसिद्ध है।

राजस्थान की भौगोलिक विविधता का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है – अरावली पर्वतमाला। यह पर्वत श्रंखला राज्य को उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व में विभाजित करती है। अरावली का दक्षिणी भाग – जैसे उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा – भौगोलिक दृष्टि से अधिक वनाच्छादित, पर्वतीय और काली मिट्टी से युक्त है। यहाँ की कृषि वर्षा पर आधारित है, परंतु भूमिगत जलस्तर अपेक्षाकृत बेहतर है। इस क्षेत्र में मक्का, सोयाबीन, उड़द, तुअर, कपास आदि की खेती की जाती है।

शेखावाटी क्षेत्र (झुंझुनूं, सीकर और चुरू) में दोमट और कुछ भागों में जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है, जो सीमित सिंचाई संसाधनों के साथ खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। यहाँ की प्रमुख फसलें हैं – गेहूँ, चना, सरसों और बाजरा।

इसके अतिरिक्त राज्य में कुछ क्षेत्रों में लवणीय मिट्टी (Sandy saline soil) भी पाई जाती है, जैसे – सांभर झील क्षेत्र, जो कृषि के लिए अनुपयुक्त मानी जाती है और जहाँ भूमिगत जल का खारापन भी एक बड़ी समस्या है। वहीं गंग नहर, इंदिरा गांधी नहर परियोजना जैसे सिंचाई प्रयासों ने बीकानेर, श्रीगंगानगर, और हनुमानगढ़ जैसे क्षेत्रों में कृषि विस्तार को बढ़ावा दिया है।

निष्कर्षतः, राजस्थान की भौगोलिक विशेषताएँ – जैसे वर्षा की असमानता, मिट्टी की विविधता, स्थलाकृति, जलस्रोतों की उपलब्धता, और तापमान की चरम सीमा – कृषि भूमि उपयोग की दिशा, प्रवृत्ति और संभावनाओं को गहराई से प्रभावित करती हैं। शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में जल-संरक्षण आधारित कृषि प्रणालियाँ आवश्यक हो गई हैं, जबकि जलसंपन्न क्षेत्रों में बहुफसली और वाणिज्यिक कृषि की संभावनाएँ अधिक हैं। इसलिए राज्य के प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार कृषि रणनीतियाँ तैयार करना अत्यंत आवश्यक हो गया है, जिससे सतत और क्षेत्रीय रूप से उपयुक्त कृषि विकास सुनिश्चित किया जा सके।

राजस्थान की कृषि भूमि उपयोग व्यवस्था अनेक भौगोलिक, पर्यावरणीय और सामाजिक कारकों के प्रभाव में निरंतर परिवर्तित हो रही है। भूमि उपयोग की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस बात को दर्शाती हैं कि कैसे राज्य की भौगोलिक विविधता, प्राकृतिक संसाधनों की सुलभता और मानव हस्तक्षेप कृषि की दिशा और स्वरूप को प्रभावित करते हैं:

• सीमित सिंचित क्षेत्र: राजस्थान में कुल कृषि योग्य भूमि में से केवल लगभग 35% भाग ही सिंचित है, जो मुख्य रूप से नहरों (जैसे इंदिरा गांधी नहर), कुओं, ट्यूबवेल्स और वर्षाजल पर आधारित जलस्रोतों से सिंचाई करता है। शेष क्षेत्र वर्षा पर निर्भर रहता है, जिससे कृषि उत्पादन में अत्यधिक अस्थिरता पाई जाती है।

• एकल फसल प्रणाली का प्रचलन: वर्षा आधारित क्षेत्रों में किसान सामान्यतः एकल फसल (Kharif या Rabi) प्रणाली अपनाते हैं। इससे भूमि की उत्पादकता सीमित रहती है और किसानों की आय पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। केवल सिंचित एवं उपजाऊ क्षेत्रों में ही द्वि-फसली या बहुफसली कृषि देखी जाती है।

• मृदा अपरदन और भूमि क्षरण: राज्य में अनियंत्रित चराई, वनों की कटाई, असंतुलित कृषि पद्धतियाँ और मानसूनी वर्षा की तीव्रता के कारण मृदा अपरदन की समस्या बढ़ी है। खासकर पश्चिमी राजस्थान में हवा द्वारा अपरदन (Aeolian erosion) बहुत गंभीर है, जिससे उपजाऊ मिट्टी का क्षरण हो रहा है।

• भूमि अपवर्जन: शहरीकरण, सड़क निर्माण, औद्योगीकरण और पर्यटन स्थलों के विकास के कारण कृषि भूमि का निरंतर संकुचन हो रहा है। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा जैसे शहरों के निकटवर्ती क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में कृषि भूमि को गैर-कृषि उपयोग में लाया जा रहा है।

• फसल विविधीकरण की गति धीमी: राज्य में कुछ क्षेत्रों में सरसों, जीरा, सौंफ, मैथी, हर्बल फसलों एवं सब्जियों की ओर रुझान बढ़ा है, परंतु व्यापक रूप में अब भी परंपरागत अनाज आधारित कृषि प्रमुख है।

6. कृषि भूमि उपयोग को प्रभावित करने वाले कारक

भूमि उपयोग की प्रकृति को प्रभावित करने वाले कारकों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:

A. प्राकृतिक कारक:

• वर्षा की अनियमितता: राज्य के अधिकांश भाग मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं, परंतु वर्षा की मात्रा, समय और वितरण असंतुलित है। इससे बुआई के समय में अनिश्चितता रहती है।

• मिट्टी की प्रकृति: रेतीली मिट्टी, दोमट, काली मिट्टी, जलोढ़ और पहाड़ी मिट्टियाँ – सभी विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जिनकी उर्वरता और जलधारण क्षमता भिन्न-भिन्न होती है।

• स्थलाकृति और जलस्रोत: समभूमि और निचले क्षेत्र सिंचाई के लिए अनुकूल होते हैं, वहीं पर्वतीय और पठारी क्षेत्र जल संचयन की तकनीकों पर निर्भर रहते हैं।

B. मानव निर्मित कारक:

• सिंचाई प्रौद्योगिकी का विकास: टपक सिंचाई, स्प्रिंकलर, खेत-तालाब, चेक डैम जैसे उपायों का प्रयोग अभी भी सीमित है। नहर सिंचाई (विशेषतः IGNP) ने कुछ क्षेत्रों में खेती को स्थायित्व प्रदान किया है।

• सरकारी नीतियाँ: भूमि सुधार कानून, बीज और उर्वरक सब्सिडी, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना आदि का प्रभाव भूमि उपयोग व्यवहार पर पड़ता है।

• बाज़ार की उपलब्धता: जिन क्षेत्रों में मंडियाँ, सड़कों और फसल खरीद केंद्रों की व्यवस्था है, वहाँ वाणिज्यिक खेती और फसल विविधीकरण अधिक देखा जाता है।

• किसान शिक्षा और जागरूकता: आधुनिक कृषि तकनीकों, मृदा परीक्षण, कीट नियंत्रण, जल प्रबंधन आदि के प्रति जागरूकता भूमि उपयोग निर्णय को प्रभावित करती है।

7. क्षेत्रीय असमानताएँ

राजस्थान में कृषि भूमि उपयोग में स्पष्ट क्षेत्रीय अंतर दिखाई देता है:

• पूर्वी राजस्थान (भरतपुर, अलवर, कोटा, बाराँ): यहाँ अपेक्षाकृत अधिक वर्षा, जल स्रोतों की उपलब्धता और उपजाऊ भूमि पाई जाती है। यहाँ द्वि-फसली और बागवानी आधारित कृषि का चलन है।

• पश्चिमी राजस्थान (जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर): मरुस्थलीय क्षेत्र, सीमित वर्षा और भूजल संकट के कारण यहाँ पर वर्षा आधारित पारंपरिक फसलें (बाजरा, मोठ, मूँग) उगाई जाती हैं। यहाँ कृषि जोखिम से भरी और कम लाभदायक है।

• दक्षिण राजस्थान (डूंगरपुर, बांसवाड़ा, सिरोही): यहाँ की भू-आकृति पहाड़ी है, जनसंख्या का बड़ा भाग आदिवासी है। कृषि प्रणाली परंपरागत है, और छोटे जोत वाले खेतों में आत्मनिर्भर खेती की जाती है।

8. कृषि विकास और भूगोल

राजस्थान में कृषि विकास की रणनीतियाँ भूगोल आधारित होनी चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों की भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुसार विशिष्ट उपायों को अपनाना आवश्यक है:

• पश्चिमी राजस्थान में वर्षा जल संचयन (तालाब, जोहड़), सूखा-रोधी बीज, बाड़-खेती, चारागाह विकास, और मृदा संरक्षण पर बल दिया जाना चाहिए।

• पूर्वी राजस्थान में कृषि आधारित उद्योगों (Food Processing), बहुफसली खेती, और जैविक कृषि की संभावनाएँ अधिक हैं।

• दक्षिण राजस्थान में एकीकृत आदिवासी कृषि विकास कार्यक्रम, जल संरक्षण, पारंपरिक ज्ञान और सहकारी कृषि मॉडल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

9. चुनौतियाँ

राजस्थान में कृषि भूमि उपयोग प्रणाली के समक्ष अनेक बहुआयामी चुनौतियाँ विद्यमान हैं, जो इसके सतत विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं। ये चुनौतियाँ केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि सामाजिक, तकनीकी, पर्यावरणीय और नीतिगत स्तर पर भी गहराई से जुड़ी हुई हैं:

1. जल संकट और भूजल का अत्यधिक दोहन: राजस्थान में वर्षा अत्यंत कम और असमान रूप से होती है, जिससे अधिकांश कृषि भूमि वर्षा पर निर्भर है। भूजल ही एकमात्र सतत सिंचाई स्रोत बन गया है, जिससे जल स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) के अनुसार राज्य के कई ब्लॉक 'अत्यधिक दोहन क्षेत्र' (Over-Exploited) घोषित किए जा चुके हैं। इससे दीर्घकालीन कृषि क्षमता पर संकट उत्पन्न हो गया है।

2. कृषि भूमि का तेजी से गैर-कृषि प्रयोजनों के लिए उपयोग: राज्य में तेजी से हो रहे शहरीकरण, सड़क निर्माण, औद्योगिक परियोजनाएँ, और पर्यटन क्षेत्रों के विकास ने बड़ी मात्रा में कृषि भूमि को अवशोषित किया है। इससे एक ओर खेती योग्य क्षेत्रफल में गिरावट आई है, वहीं दूसरी ओर खाद्य सुरक्षा की संभावनाएँ भी क्षीण हुई हैं।

3. मृदा उर्वरता में गिरावट: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और अंधाधुंध फसल चक्र के कारण मृदा की जैविक गुणवत्ता में गिरावट आई है। मृदा की संरचना और जलधारण क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, जिससे भूमि की उत्पादकता घट रही है।

4. किसानों में आधुनिक कृषि तकनीक की सीमित पहुँच: राज्य के अधिकांश किसान लघु और सीमांत हैं, जिनके पास न तो पूंजी है, न तकनीकी जानकारी। आधुनिक कृषि यंत्र, बीज, सूक्ष्म सिंचाई तकनीक, मौसम आधारित फसल सलाह, और फसल बीमा जैसी सुविधाएँ अभी भी सीमित पहुँच में हैं। यह डिजिटल डिवाइड कृषि नवाचारों की प्रभावशीलता को सीमित करता है।

5. जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव: राजस्थान जैसे अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के लिए अत्यंत संवेदनशील हैं। मानसून में अनिश्चितता, हीटवेव की तीव्रता, वर्षा की स्थानिक और कालिक असमानता, एवं सूखे की पुनरावृत्ति — ये सभी कृषि स्थिरता को प्रभावित करते हैं।

10. समाधान और सुझाव

राजस्थान में कृषि भूमि उपयोग और विकास को संतुलित एवं टिकाऊ बनाने के लिए बहुस्तरीय समाधान अपनाना आवश्यक है, जो भूगोल, पर्यावरण और समाज के बीच संतुलन स्थापित करें:

1. क्षेत्र-विशेष भूमि उपयोग योजना (Agro-Ecological Zoning): राज्य को विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में विभाजित कर प्रत्येक क्षेत्र की प्राकृतिक क्षमता, जल स्रोत, मिट्टी की विशेषता और सामाजिक संरचना के आधार पर फसल योजना बनानी चाहिए। इससे अधिकतम उत्पादकता के साथ भूमि संरक्षण भी संभव होगा।

2. सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली का विस्तार: ड्रिप और स्प्रिंकलर जैसी तकनीकों के प्रसार से जल की बचत होगी और सिंचाई की दक्षता बढ़ेगी। सरकार द्वारा सब्सिडी और प्रशिक्षण के माध्यम से इन प्रणालियों को विशेष रूप से जल-संकटग्रस्त क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाया जा सकता है।

3. मृदा स्वास्थ्य कार्ड और जैविक खेती का प्रोत्साहन: मृदा की जांच, उसकी पोषकता की रिपोर्ट और उसके अनुरूप उर्वरक की सिफारिशों से मृदा की उर्वरता बनी रह सकती है। रासायनिक उर्वरकों के विकल्प के रूप में गोबर खाद, हरी खाद, और वर्मी कम्पोस्ट को अपनाना अनिवार्य होना चाहिए।

4. कृषि आधारित उद्योगों का विकास: स्थानीय स्तर पर प्रोसेसिंग यूनिट, कोल्ड स्टोरेज, मूल्य वर्धन केंद्र और कृषि विपणन संरचना का विकास किसानों को उचित मूल्य दिलाने और रोजगार सृजन में सहायक हो सकता है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।

5. GIS और भू-स्थानिक तकनीकों का उपयोग: भू-स्थानिक डाटा का प्रयोग कर भूमि उपयोग मानचित्रण, सिंचाई योजना, सूखा पूर्वानुमान, जल संचयन स्थलों की पहचान और फसल योजना तैयार की जा सकती है। इससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ कृषि रणनीतियाँ बनाई जा सकती हैं।

6. कृषि शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम: किसानों को जल प्रबंधन, फसल विविधीकरण, जैविक खेती, आधुनिक बीज, कीट नियंत्रण और बाज़ार की जानकारी के लिए नियमित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केंद्रों और NGOs की भूमिका इसमें अहम हो सकती है।

7. सामुदायिक जल संसाधन प्रबंधन: पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों जैसे जोहड़, नाड़ी, तालाब आदि का पुनर्जीवन कर ग्राम स्तर पर जल संग्रहण को बढ़ावा देना चाहिए। इससे सामूहिक जल उपयोग और भूजल पुनर्भरण को बल मिलेगा।

निष्कर्षतः, राजस्थान की भौगोलिक विषमताएँ कृषि भूमि उपयोग को अत्यंत जटिल बनाती हैं। इन चुनौतियों के समाधान के लिए केवल तकनीकी हस्तक्षेप नहीं, बल्कि क्षेत्र-विशेष, भूगोल-संगत और किसान-केंद्रित रणनीतियाँ आवश्यक हैं। राज्य में सतत कृषि विकास के लिए सरकार, अनुसंधान संस्थानों, किसानों और स्थानीय समुदायों के बीच एक सशक्त सहयोगी ढाँचा विकसित करना होगा। इससे कृषि भूमि उपयोग को पर्यावरणीय संतुलन, आर्थिक लाभ और सामाजिक समावेशिता की ओर उन्मुख किया जा सकेगा।

11. निष्कर्ष (Conclusion)

राजस्थान जैसे भौगोलिक दृष्टि से विविध, जल-संकटग्रस्त और सामाजिक-आर्थिक रूप से जटिल राज्य में कृषि भूमि उपयोग का विश्लेषण केवल सांख्यिकीय या नीतिगत दृष्टिकोण से पर्याप्त नहीं है। इसके लिए एक गहन भौगोलिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो प्राकृतिक कारकों (जैसे वर्षा, तापमान, मृदा, स्थलाकृति) और मानवीय हस्तक्षेप (जैसे सिंचाई, नीति, शहरीकरण) की परस्पर क्रियाओं को समझ सके। यह शोध स्पष्ट करता है कि राजस्थान में कृषि भूमि उपयोग की प्रवृत्तियाँ क्षेत्र-विशेष हैं, जिनमें पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी भागों में भिन्न-भिन्न भूगोलिक और सामाजिक विशेषताएँ प्रभावी हैं। भूमि का सतत और उपयोगी दोहन तभी संभव है जब राज्य की प्राकृतिक सीमाओं और संभावनाओं को पहचानकर भूगोल-आधारित योजना बनाई जाए। जल संकट, भूमि क्षरण, मृदा अपरदन, और पारंपरिक कृषि पद्धतियों की अक्षमता जैसे मुद्दों से निपटने के लिए हमें स्थानीय समाधान (जैसे वर्षा जल संचयन, सूक्ष्म सिंचाई, जैविक खेती) और तकनीकी नवाचार (GIS, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, स्मार्ट एग्रीकल्चर) को एकीकृत करना होगा। साथ ही, किसानों को प्रशिक्षण, बाजार संपर्क, मूल्य वर्धन और नीति समर्थन प्रदान कर कृषि भूमि को लाभकारी और टिकाऊ बनाया जा सकता है।

इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजस्थान की कृषि में सुधार का मार्ग भूगोल से होकर ही जाता है। क्षेत्रीय विषमताओं के आधार पर योजनाओं का निर्माण, पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक का समन्वय, और स्थानीय सहभागिता पर आधारित नीति ही इस विशाल राज्य में कृषि के समग्र और सतत विकास का मूल आधार बन सकती है। भूगोल का गहन अध्ययन न केवल भूमि उपयोग के वर्तमान स्वरूप को समझने में सहायक है, बल्कि यह भविष्य की खाद्य सुरक्षा, पर्यावरणीय संतुलन और ग्रामीण जीवन की स्थिरता के लिए भी एक आवश्यक मार्गदर्शक है।

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