राजस्थान की मृदा विविधता और उसका कृषि उपयुक्तता पर प्रभाव: एक क्षेत्रीय विश्लेषण
Author(s): Ayush Soni
Publication #: 2507009
Date of Publication: 04.07.2025
Country: india
Pages: 1-6
Published In: Volume 11 Issue 4 July-2025
Abstract
राजस्थान, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है, भौगोलिक दृष्टिकोण से अत्यंत विविधता पूर्ण प्रदेश है। यह राज्य न केवल अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि अपनी जटिल स्थलाकृति, विषम वर्षा वितरण और चरम जलवायु स्थितियों के लिए भी विशिष्ट है। यहाँ एक ओर पश्चिमी भाग में विस्तृत थार मरुस्थल स्थित है, तो दूसरी ओर पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में अरावली पर्वत श्रृंखला, उपजाऊ मैदान और पठारी क्षेत्र भी पाए जाते हैं। राज्य के लगभग 60% भाग में अत्यल्प वर्षा (औसतन 100–400 मिमी) होती है, जिससे यहाँ की मृदाएँ जलधारण क्षमता, गहराई, बनावट और पोषक तत्वों की उपलब्धता की दृष्टि से भिन्न-भिन्न गुणों से युक्त हैं। कुछ क्षेत्रों में मृदा अत्यधिक रेतीली है, तो कहीं-कहीं भारी काली मिट्टी भी पाई जाती है। इस प्रकार राजस्थान की मृदा विविधता न केवल भौगोलिक कारकों का परिणाम है, बल्कि मानवीय हस्तक्षेप, कृषि गतिविधियों और सिंचाई पद्धतियों से भी प्रभावित हुई है। मृदा, कृषि के लिए सबसे बुनियादी संसाधन है, और इसकी गुणवत्ता सीधे तौर पर फसल की उपज, जल उपयोग दक्षता, खाद्य सुरक्षा, कृषक आय और पर्यावरणीय संतुलन को प्रभावित करती है। इसलिए, राज्य की मृदाओं की वैज्ञानिक समझ, उनका वर्गीकरण और कृषि उपयुक्तता का मूल्यांकन समय की आवश्यकता बन गया है।
यह शोध-पत्र, राजस्थान की मृदाओं के भौगोलिक वितरण, भौतिक और रासायनिक विशेषताओं, तथा उनकी कृषि उपयुक्तता का एक समग्र विश्लेषण प्रस्तुत करता है। साथ ही, यह मृदा से जुड़ी चुनौतियों जैसे अपरदन, लवणता, क्षारीयता, पोषक तत्वों की कमी आदि को भी उजागर करता है, जिससे क्षेत्रीय स्तर पर स्थायी और विज्ञान-सम्मत कृषि नीति का निर्माण संभव हो सके।
2. शोध की आवश्यकता (Need of the Study)
राजस्थान की भौगोलिक विषमताएँ, जैसे कि असमान वर्षा, विविध स्थलाकृति, जल संसाधनों की कमी, और मानवजनित पर्यावरणीय हस्तक्षेप, राज्य की मृदाओं को विशेष रूप से संवेदनशील बनाते हैं। परिणामस्वरूप राज्य के अनेक भागों में मृदा का क्षरण, जैविक तत्वों की कमी, लवणता-क्षारीयता की समस्या और मृदा की उत्पादकता में गिरावट जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं।
वर्तमान कृषि संकट, बढ़ती जनसंख्या, और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के मध्य, मृदा की स्थिति को नजरंदाज करना दीर्घकालिक विकास की दृष्टि से गंभीर भूल होगी। विशेष रूप से राजस्थान जैसे अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रीय राज्य के लिए, जहाँ कृषि मुख्य रूप से वर्षा पर आधारित है, मृदा की गुणवत्ता और संरचना का अध्ययन अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
इस शोध की आवश्यकता निम्नलिखित प्रमुख कारणों से है:
• क्षेत्रीय कृषि योजना के लिए मृदा उपयुक्तता का भौगोलिक विश्लेषण अनिवार्य है।
• मृदा स्वास्थ्य सुधार कार्यक्रमों की प्रभावशीलता तभी बढ़ेगी जब मृदा प्रकारों की वैज्ञानिक समझ विकसित होगी।
• सतत कृषि प्रणाली के लिए यह आवश्यक है कि मृदा की क्षमता और सीमाओं को समझते हुए फसल चयन और तकनीक अपनाई जाए।
• नीतिगत निर्णय (जैसे कि भूमि उपयोग नीति, सिंचाई योजना, उर्वरक सब्सिडी वितरण आदि) मृदा आधारित डेटा के बिना अधूरी और असंगत रहती हैं।
इसलिए, इस अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य है कि राजस्थान की विविध मृदाओं का भौगोलिक, पर्यावरणीय और कृषि-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया जाए, जिससे क्षेत्रवार फसल योजना, जल संरक्षण रणनीति और मृदा सुधार कार्यक्रमों को मजबूती प्रदान की जा सके।
3. उद्देश्य (Objectives)
1. राजस्थान की प्रमुख मृदा प्रकारों की पहचान और उनका भूगोलिक वितरण स्पष्ट करना।
2. मृदा के भौतिक और रासायनिक गुणों का विश्लेषण करना।
3. विभिन्न मृदा प्रकारों की कृषि उपयुक्तता का मूल्यांकन करना।
4. मृदा संबंधित समस्याओं जैसे अपरदन, लवणता, क्षारीयता आदि की पहचान करना।
5. कृषि नीति और भूमि उपयोग योजना हेतु व्यवहारिक सुझाव प्रस्तुत करना।
4. अध्ययन क्षेत्र का परिचय (Overview of Study Area)
राजस्थान राज्य भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है और इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 3.42 लाख वर्ग किलोमीटर है, जो भारत के कुल भूभाग का लगभग 10.4% है। राज्य की सीमा उत्तर में पंजाब, हरियाणा से लेकर पूर्व में उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में मध्यप्रदेश और दक्षिण-पश्चिम में गुजरात तक फैली हुई है, जबकि पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से लगती है। राजस्थान की भौगोलिक विविधता इसे अन्य राज्यों से विशिष्ट बनाती है। अरावली पर्वत श्रृंखला, जो राज्य को उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर काटती है, राज्य को दो प्राकृतिक क्षेत्रों में विभाजित करती है:
• पश्चिमी राजस्थान:
• यह भाग मुख्यतः थार मरुस्थल (The Great Indian Desert) के अंतर्गत आता है।
• यहाँ वर्षा अत्यल्प (औसतन 100–300 मिमी वार्षिक) होती है।
• भूमिवृत्तीय दृष्टि से यहाँ रेत के टिब्बे, प्लाया (playa) झीलें, और अंतर्देशीय जल निकासी तंत्र विद्यमान हैं।
• कृषि सीमित, परंतु पशुपालन व्यापक है।
• पूर्वी और दक्षिणी राजस्थान:
• अरावली की पूर्वी ढलानों, दक्षिणी पठारी क्षेत्रों तथा मध्य मैदानों को सम्मिलित करता है।
• वर्षा अपेक्षाकृत अधिक (500–1000 मिमी वार्षिक), जिससे यहाँ की मृदा अधिक उपजाऊ होती है।
• मुख्यतः जलोढ़, काली एवं लाल-पीली मृदाएँ पाई जाती हैं, जिनमें सिंचित खेती होती है।
राज्य की जलवायु, स्थलाकृति, प्राकृतिक वनस्पति और मानवजनित भूमि उपयोग जैसे कारक मृदा के निर्माण, विकास और विविधता में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि राजस्थान में रेतीली मरुस्थलीय मृदा से लेकर भारी जलोढ़ और काली मिट्टी तक की उपस्थिति मिलती है।
5. मृदा के प्रमुख प्रकार (Major Soil Types in Rajasthan)
राजस्थान की मृदाएँ जलवायु, चट्टानी आधारभूत संरचना, वर्षा की मात्रा, और स्थलाकृतिक विशेषताओं के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की पाई जाती हैं। इनका वर्गीकरण भारतीय मृदा सर्वेक्षण संगठन (ICAR-NBSS&LUP) तथा राज्य कृषि विभाग के अध्ययनों के आधार पर इस प्रकार किया जा सकता है:
5.1 रेतीली मृदा (Desert or Sandy Soils)
• स्थान: जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, चुरू, श्रीगंगानगर।
• भौतिक गुण: बहुत हल्की बनावट, जलधारण क्षमता अत्यंत कम, कार्बनिक तत्वों की न्यूनता।
• रासायनिक गुण: नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की कमी, pH सामान्यतः 7.5–8.5।
• कृषि उपयुक्तता: केवल सूखा प्रतिरोधी फसलों जैसे बाजरा, ग्वार, मूंग, मोठ आदि के लिए उपयुक्त।
• संभावनाएँ: यदि ड्रिप सिंचाई, मल्चिंग व जैविक खादों का उपयोग हो, तो उत्पादकता में वृद्धि संभव।
5.2 काली मृदा (Black Soils)
• स्थान: कोटा, झालावाड़, बारां, बूंदी के कुछ भाग।
• भौतिक गुण: भारी बनावट, उच्च जलधारण क्षमता, दरार पड़ने की प्रवृत्ति।
• रासायनिक गुण: आयरन, मैग्नीशियम से भरपूर; कभी-कभी पोटाश अधिक मात्रा में।
• कृषि उपयुक्तता: कपास, सोयाबीन, चना, अरहर जैसी गहरी जड़ वाली फसलों हेतु उपयुक्त।
• सिंचाई प्रतिक्रिया: सिंचित क्षेत्र में अत्यंत उपजाऊ सिद्ध होती है।
5.3 लाल-पीली मृदा (Red-Yellow Soils)
• स्थान: दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़।
• भौतिक गुण: मध्यम बनावट, जलधारण क्षमता सीमित।
• रासायनिक गुण: लोहे की अधिकता के कारण लालिमा; जैविक पदार्थ कम।
• कृषि उपयुक्तता: मक्का, गेहूं, उड़द, चना जैसी फसलें संभव; जैविक सुधार की आवश्यकता।
• सुधार हेतु उपाय: हरी खाद, सड़ी गोबर खाद एवं चूने के प्रयोग से उर्वरता में वृद्धि।
5.4 जलोढ़ मृदा (Alluvial Soils)
• स्थान: पूर्वी राजस्थान – भरतपुर, अलवर, धौलपुर, टोंक, कोटा।
• भौतिक गुण: गहरी, उपजाऊ, रेत से लेकर चिकनी तक विविध बनावट।
• रासायनिक गुण: पोषक तत्वों से समृद्ध, pH सामान्यतः 6.5–8 के बीच।
• कृषि उपयुक्तता: धान, गेहूं, गन्ना, सब्जियाँ आदि के लिए सर्वोत्तम।
• सिंचाई प्रतिक्रिया: सिंचाई और उर्वरकों के साथ अत्यधिक उत्पादक।
5.5 लवणीय एवं क्षारीय मृदा (Saline-Alkaline Soils)
• स्थान: नागौर, झुंझुनूं, सीकर, जोधपुर के कुछ भाग।
• भौतिक गुण: सतह पर सफेद परत, जल अपवाह कम, वाष्पीकरण अधिक।
• रासायनिक गुण: NaCl व Na₂CO₃ की अधिकता; pH 8.5–10 तक हो सकता है।
• कृषि उपयुक्तता: सामान्यतः अनुपयुक्त, परंतु लेमनग्रास, सरसों, जौ जैसी सहनशील फसलें उगाई जा सकती हैं।
• सुधार उपाय: जिप्सम उपचार, जैविक खाद, जल निकासी प्रणाली की स्थापना।
6. मृदा की कृषि उपयुक्तता पर प्रभाव (Impact on Agricultural Suitability)
राजस्थान की विविध भौगोलिक संरचनाओं और जलवायु परिस्थितियों के अनुरूप मृदा विविधता राज्य की कृषि प्रणाली की नींव बनाती है। विभिन्न मृदा प्रकारों की भौतिक और रासायनिक विशेषताओं के आधार पर न केवल फसल चयन, बल्कि सिंचाई विधि, भूमि उपयोग प्रणाली और फसल चक्र निर्धारण भी प्रभावित होता है।
• रेतीली मृदाएँ: पश्चिमी राजस्थान की रेतीली मृदाएँ जलधारण क्षमता की कमी, पोषक तत्वों की न्यूनता और तीव्र वाष्पीकरण के कारण कृषि हेतु सीमित रूप से उपयुक्त हैं। इन क्षेत्रों में सिंचाई करना कठिन होता है और फसलें सूखा प्रतिरोधी होनी चाहिए। अतः बाजरा, मूंग, मोठ, ग्वार जैसी फसलें ही यहाँ टिकाऊ रूप से उगाई जा सकती हैं।
• काली मृदाएँ: दक्षिण-पूर्वी राजस्थान की काली मृदाओं में जलधारण क्षमता अत्यधिक होती है। इन मृदाओं की भारी बनावट गहरी जड़ वाली फसलों जैसे कपास, सोयाबीन, अरहर, चना के लिए उपयुक्त होती है। सिंचित कृषि पद्धतियों के प्रयोग से इन क्षेत्रों में बहु-फसली प्रणाली भी संभव है।
• जलोढ़ मृदाएँ: पूर्वी और उत्तर-पूर्वी राजस्थान की जलोढ़ मृदाएँ अत्यंत उपजाऊ हैं और विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त होती हैं। यहाँ धान, गेहूं, गन्ना, सरसों, सब्जियाँ आदि सफलतापूर्वक उगाई जाती हैं। इन मृदाओं में सिंचाई सुविधाओं और पोषक तत्वों की उपयुक्तता के कारण बहु-फसल और उच्च उत्पादकता प्रणाली को बढ़ावा मिला है।
• लाल-पीली मृदाएँ: ये मृदाएँ मध्यम उपजाऊ होती हैं, जिनमें मक्का, ज्वार, चना, मूंगफली जैसी फसलें उगाई जाती हैं। जैविक सुधार के साथ इन मृदाओं की उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है।
• क्षारीय और लवणीय मृदाएँ: इन मृदाओं में सामान्य कृषि संभव नहीं होती जब तक कि उपयुक्त सुधार उपाय न अपनाए जाएँ। जिप्सम उपचार, बायोफर्टिलाइज़र और सल्फर युक्त उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक होता है। विशेष प्रकार की सहनशील फसलें ही इनमें पनप पाती हैं।
अतः स्पष्ट है कि मृदा की प्रकृति सीधे तौर पर कृषि की दिशा और गुणवत्ता को प्रभावित करती है। क्षेत्रीय स्तर पर मृदा परीक्षण और मृदा-विशिष्ट कृषि योजना बनाना सतत कृषि विकास की कुंजी है।
7. मृदा संबंधित प्रमुख समस्याएँ (Major Soil-related Issues)
राजस्थान में भूमि का अत्यधिक दोहन, असंतुलित कृषि तकनीकों, और प्राकृतिक क्षरण की प्रक्रियाओं के कारण मृदा की गुणवत्ता पर कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इन समस्याओं का समय पर समाधान न होने पर उत्पादकता में गिरावट, भूमि की बंजरता और खाद्य असुरक्षा जैसे गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
1. मृदा अपरदन (Soil Erosion):
• अरावली की ढलानों, शुष्क जलग्रहण क्षेत्रों और टिब्बों वाले भागों में वर्षाजल और हवा से तीव्र मृदा अपरदन हो रहा है।
• इससे मृदा की उपजाऊ परत समाप्त हो रही है और भूमि बंजर बन रही है।
2. लवणता और क्षारीयता:
• विशेषकर सिंचाई जल की गुणवत्ता खराब होने के कारण जलभराव और क्षार संचयन बढ़ता जा रहा है।
• नागौर, सीकर, झुंझुनूं जैसे क्षेत्रों में यह समस्या गंभीर रूप ले चुकी है।
3. पोषक तत्वों की कमी:
• रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण मृदा की पोषक संतुलन गड़बड़ा गया है। नाइट्रोजन की अधिकता और जैविक कार्बन की कमी सामान्यतः पाई जाती है।
4. जैविक पदार्थों की कमी:
• अधिकांश क्षेत्रों में ह्यूमस, जीवाश्म और सूक्ष्मजीवों की संख्या में गिरावट देखी गई है, जिससे मृदा का संरचनात्मक संतुलन और उर्वरता घट रही है।
5. मृदा की क्षरणशीलता:
• टिब्बों, रेतीले क्षेत्रों और चरम ढलानों वाली भूमि में मृदा शीघ्रता से क्षरित होती है, जिससे भूमि का संरक्षण और पुनर्भरण कठिन हो जाता है।
8. सुझाव (Suggestions) – विस्तारित रूप
राजस्थान में मृदा स्वास्थ्य को सुधारने एवं कृषि उपयुक्तता को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित ठोस और व्यवहारिक उपाय आवश्यक हैं:
1. मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना:
• प्रत्येक ब्लॉक और पंचायत स्तर पर मृदा परीक्षण केंद्र स्थापित किए जाएँ ताकि किसान मृदा की स्थिति के अनुरूप फसल और खाद योजना बना सकें।
2. मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना को सशक्त बनाना:
• मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना को फसल-विशिष्ट और क्षेत्रीय सिफारिशों के साथ सक्रिय किया जाए।
• किसान प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा इसका व्यावहारिक उपयोग सुनिश्चित किया जाए।
3. जैविक खाद और हरी खाद का प्रयोग:
• गोबर खाद, कंपोस्ट, नीम खली और हरी खाद (जैसे सनई, ढैंचा) के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे मृदा की जैविक गुणवत्ता में सुधार हो।
4. जल संरक्षण रणनीतियाँ:
• रेनवाटर हार्वेस्टिंग, स्टेप टेर्रेसिंग, चेक डैम और परकोलेशन टैंक जैसी तकनीकों को अपनाकर मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।
5. क्षारीय मृदाओं में सुधार उपाय:
• जिप्सम उपचार, सूक्ष्मजीव आधारित जैविक उर्वरक, और सिंचाई जल की गुणवत्ता परीक्षण पर बल दिया जाए।
9. निष्कर्ष (Conclusion)
राजस्थान की मृदा विविधता न केवल इस राज्य की भौगोलिक विशेषता है, बल्कि इसकी कृषि प्रणाली, खाद्य सुरक्षा, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बुनियाद भी है। राज्य में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की मृदाएँ—जैसे रेतीली, जलोढ़, काली, लाल-पीली तथा क्षारीय—प्रत्येक की अपनी विशेष संरचना, भौतिक व रासायनिक गुण तथा कृषि उपयुक्तता होती है, जो उस क्षेत्र में उगाई जाने वाली फसलों की प्रकृति और पैदावार को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। राजस्थान की जलवायु की विषमता, अत्यल्प वर्षा, उच्च तापमान और मरुस्थलीय विस्तार के चलते मृदा की गुणवत्ता पर प्राकृतिक दबाव लगातार बना रहता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो राज्य की कृषि प्रणाली का दीर्घकालिक भविष्य मृदा की उर्वरता और संरचना के संरक्षण पर निर्भर करता है। रेतीली और क्षारीय मृदाएँ जहाँ सीमित कृषि उपयोग की अनुमति देती हैं, वहीं जलोढ़ और काली मृदाएँ उच्च उत्पादकता की संभावनाएँ प्रदान करती हैं। परंतु इन सभी प्रकारों में समस्याएँ—जैसे मृदा अपरदन, लवणता, पोषक तत्वों की कमी और जैविक पदार्थों की न्यूनता—एक गंभीर चुनौती के रूप में उभर रही हैं। इसलिए वैज्ञानिक हस्तक्षेप और नीतिगत प्रतिबद्धता की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।
राज्य स्तर पर भूमि उपयोग योजनाएँ, मृदा परीक्षण और विश्लेषण, फसल विशिष्ट अनुशंसाएँ, जैविक सुधारक तकनीकों का प्रोत्साहन तथा किसानों को जागरूक करना आवश्यक है। इसके साथ ही परंपरागत ज्ञान—जैसे हरित खाद, बारानी कृषि प्रणाली और जल संरक्षण तकनीकों—को पुनर्स्थापित करना भी उपयोगी सिद्ध होगा।
इस शोध का निष्कर्ष स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि यदि मृदा के प्रकारों और उनकी कृषि उपयुक्तता की वैज्ञानिक समझ को नीति निर्माण, कृषि विस्तार सेवाओं और कृषक व्यवहार में समाहित किया जाए, तो राजस्थान जैसे जल और मृदा संकटग्रस्त राज्य में भी कृषि की सतत और समृद्ध प्रणाली का निर्माण संभव है। मृदा स्वास्थ्य की रक्षा न केवल फसल उत्पादकता को सुनिश्चित करेगी, बल्कि यह प्रदेश की समग्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खाद्य आपूर्ति शृंखला और पारिस्थितिकीय संतुलन को भी मजबूती प्रदान करेगी।
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