गांधी दर्शन में एकादश व्रत की अवधारणा

Author(s): डॉ. रेखा पाण्डेय

Publication #: 2504006

Date of Publication: 02.01.2021

Country: India

Pages: 1-7

Published In: Volume 7 Issue 1 January-2021

Abstract

महात्मा गांधी ने अपने जीवन और विचारधारा को नैतिकता, आत्मसंयम और सत्य के सिद्धांतों पर आधारित किया। उन्होंने समाज और व्यक्ति के विकास के लिए ‘एकादश व्रत’ की अवधारणा प्रस्तुत की, जो सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शरीर-श्रम, अस्वाद, भय-वर्जन, स्वदेशी, स्पर्श-भावना और सर्वधर्म समभाव पर आधारित है। ये व्रत गांधी के आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के मूल स्तम्भ हैं, जिनका उद्देश्य आत्मशुद्धि और समाज सुधार था। गांधी का मानना था कि सत्य और अहिंसा सर्वोच्च नैतिक मूल्य हैं, जो व्यक्ति और समाज दोनों के उत्थान के लिए आवश्यक हैं। ब्रह्मचर्य और अस्तेय के माध्यम से व्यक्ति आत्मसंयम और ईमानदारी की ओर अग्रसर होता है, जबकि अपरिग्रह और शरीर-श्रम श्रम की गरिमा को बढ़ावा देते हैं। अस्वाद और भय-वर्जन आत्मनियंत्रण और निडरता की भावना विकसित करते हैं। स्वदेशी और स्पर्श-भावना आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता को प्रोत्साहित करते हैं, जबकि सर्वधर्म समभाव धार्मिक सहिष्णुता को बल प्रदान करता है। यद्यपि, गांधी के एकादश व्रत को लेकर कुछ आलोचनाएँ भी की गई। कुछ विचारकों का मानना है कि इन्हंे व्यावहारिक जीवन में अपनाना कठिन हैं, विशेषकर आधुनिक आर्थिक और राजनीतिक संदर्भ में। ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे व्रतों को अत्यधिक कठोर बताया गया है, जबकि स्वदेशी की अवधारणा को वैश्वीकरण के दौर में अव्यावहारिक माना जाता है। फिर भी, गांधी के ये व्रत सम्बन्धी सिद्धांत नैतिकता, सामाजिक न्याय और आत्मशुद्धि की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं और आज भी प्रासंगिक हैं।

Keywords: महात्मा गांधी, एकादश व्रत, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, स्वदेशी, सर्वधर्म समभाव, आत्मसंयम, सामाजिक न्याय

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