प्राचीन नीतिशास्त्रीय परंपरा और कबीर

Author(s): विष्णु चन्द गौड़

Publication #: 2403047

Date of Publication: 30.03.2024

Country: India

Pages: 1-10

Published In: Volume 10 Issue 2 March-2024

Abstract

प्राचीन भारत में नीतिशास्त्रीय परंपरा धार्मिक कर्मकांडों, देव पूजन और प्रकृति पूजा पर केंद्रित थी। वैदिक युग में कर्मकांडों के बढ़ते वर्चस्व के कारण तपस्वी वृत्ति का विकास हुआ, जिससे ज्ञानवाद और योग का उदय हुआ। बाद में जैन और बौद्ध धर्मों ने कर्मकांडों के विरोध और सद्गुणों पर जोर दिया। इस परिवर्तनकारी वातावरण में, कबीर ने समाज की विकृतियों को उजागर किया और व्यक्तिगत नैतिकता और ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया। उन्होंने ऊँच-नीच और धार्मिक विभाजन की आलोचना की और प्रेम, करुणा और सत्य पर आधारित एक सर्वव्यापी ईश्वर की उपासना का प्रचार किया।

भले ही कबीर का जन्म सदियों पहले हुआ था, उनकी शिक्षाएं वर्तमान समय में भी प्रासंगिक हैं। आज भी कबीर की आवाज धार्मिक कट्टरता और धर्म के नाम पर भेदभाव के खिलाफ गूंजती है। कबीर की जाति व्यवस्था और भौतिकवाद की आलोचना समाज में व्याप्त असमानताओं को संबोधित करती है। भौतिकवाद के वर्चस्व वाले युग में, कबीर की अंतर्मुखी खोज और ईश्वरीय अनुभव का संदेश प्रासंगिक बना हुआ है। कबीर की प्रकृति से सद्भाव में रहने की शिक्षाएँ आज की पर्यावरणीय चिंताओं के लिए एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करती हैं। सच्चाई, करुणा और अहिंसा पर कबीर का जोर आज भी नैतिक सिद्धांतों को बनाए रखने की आवश्यकता को उजागर करता है।

मुख्य शब्द : धर्म, कर्मकाण्ड, नैतिक, आध्यात्मिक, शिक्षा, जाति, सदाचार, तप, आधुनिकता

कबीर प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्र की परंपरा में एक उल्लेखनीय व्यक्ति थे। उनकी शिक्षाएँ समाज की बुराइयों की आलोचना करती हैं, व्यक्तिगत नैतिकता पर जोर देती हैं और एक दयालु और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। भले ही सदियों बीत चुके हैं, कबीर की शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और व्यक्तियों और समाज को एक बेहतर भविष्य की दिशा में ले जाने के लिए एक आधार प्रदान करती हैं।

वैदिक युग में हमारे पूर्वजों का जीवन अत्यन्त सरल था और उनके कार्यों में भी कोई जटिलता नहीं थी। देवों और पितरों के क्रोध से बचने हेतु देव-पूजन, पितृ-पूजन तथा यज्ञ पर जोर दिया जाता था। वे प्रकृति के भीतर निहित शक्तियों के प्रतीक देवरूपों के समक्ष स्तुति, प्रार्थना, पशु-बलि देते थे। उस समय जादू-टोना, मंत्रों का प्रयोग भी प्रचलित था। वैदिक युग में धार्मिक कर्मकाण्डों, यज्ञों और प्रार्थनाओं के माध्यम से लोग देवताओं और पितरों को खुश रखने का प्रयास करते थे। वे श्रद्धा और आस्था के साथ सांसारिक घटनाओं, आपदाओं और मनुष्य के भाग्य का निर्धारण करने वाले देवताओं की पूजा करते थे। मान्यता थी कि ये देवताएं प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करते हैं। इनकी प्रार्थनाओं व अनुष्ठानों से प्राप्त देव-कृपा के माध्यम से दुश्मनों पर विजय प्राप्त करते हुए मनुष्य संसार में भौतिक सुख-संपत्ति के साथ अपना जीवन यापन कर सकते हैं। लेकिन कर्मकाण्ड और बाह्य आडम्बरों के बढ़ते प्रभाव से वैदिक युग में ही यज्ञ में पशु-हिंसा, वीभत्सता बढ़ने लगी। इस कारण व्रात्य लोग यज्ञादि से दूर रहते हुए एकाग्रता में तप करने लगे। वे यज्ञों से प्राप्त कर्म-फलों को अनित्य मानते थे और जरा-मरण के चक्र से तथा सांसारिक दुःखों से पूर्णतः निवृत्ति के लिए प्रयासरत थे। सांख्यदर्शन का ज्ञानवाद इन्हीं तापसियों के चिन्तन-मनन का फल था। सांख्यदर्शन के ज्ञानवाद के साथ तपोविद्या का मेल हो जाने से जैगीषव्य द्वारा योगमार्ग का प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार संतानोत्पत्ति करके तप और संयम के साथ जीवन-यापन करते हुए सदाचरण पर बल दिया जाने लगा। व्यक्तियों को अपने किये हुए कर्मों का ही अच्छा या बुरा फल मिलता है। इसमें देवों का कोई हाथ नहीं है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार, "आर्यों के इतिहास के प्रारंभिक युग में जो साधना पहले सीधे-सादे स्तुति-गान या पशु-बलि से आरंभ हुई थी, वह क्रमशः यज्ञ, कर्म, तपश्चर्या, तत्त्वज्ञान, सदाचरण तया भक्ति के पृथक् पृथक् रूप धारण करने लगी और इस विविधता के कारण मतभेद का भी अवसर आ उपस्थित हुआ। साधना की विभिन्नता के आधार पर समाज में भिन्न-भिन्न वर्गों की सृष्टि होने लगी जिनमें से एक दूसरे को स्वभावतः पराया समझने लगा।" [1]

वैदिक परम्परा के विरोध में इन्हीं दिनों यज्ञ-संबंधी पशुबलि एवं कर्मकाण्डों के विरुद्ध दो अन्य आंदोलन 'जैन धर्म' तथा 'बौद्ध धर्म' उठ खड़े हुए जिनमें न तो किसी देवोपासना को स्थान था और न कोई ईश्वरार्पण की भावना ही आवश्यक थी। इन दोनों धर्मों का प्रधान लक्ष्य "शुद्ध सात्विक जीवन" था। इनके सामने तत्वमीमांसीय समस्याओं से ज्यादा मानव की महत्ता तथा उसके पूर्ण विकास का प्रश्न कहीं अधिक मूल्यवान् था। जैन-बौद्ध धर्म की चुनौती से प्राचीन वैदिक जीवन के पुनरुद्धार की आवश्यकता महसूस हूई।

इससे सदाचरण का स्वरूप सत्कर्म से बढकर धर्म का समानार्थक शब्द माना जाने लगा। सदाचरण अब 'सदाचार' के रूप में 'दशकं धर्म लक्षणम्' (धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, घी, विद्या, सत्य तथा अक्रोध) के द्वारा स्पष्ट करने की चेष्टा भी मनुस्मृति में की गई। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म ने सदाचरण को सबसे अधिक महत्त्व दिया था। जैन धर्म में अहिंसा, निष्कामता, मनोविजय, आत्मसंयम जैसी सदाचरण-संबंधी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया गया। जैनधर्म में नीतिशास्त्र का बहुत सूक्ष्म अध्ययन किया गया है और हिंसा का पूर्णत: निषेध किया गया है। जबकि बुद्ध के द्वारा 'खंति' (क्षमा), 'सील' (शील), 'पञ्जा' (प्रज्ञा), 'मेत्ता' (मैत्री), 'सच्च' (सत्य), 'विरीय' (वीर्य) बोधिसत्व के आदर्श गुण माने गए और चित्त की शुद्धि को महत्त्वपूर्ण माना गया। जैन धर्म के बजाय बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग अपनाता है। तथापि बौद्ध धर्म में चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग, षड़पारमिता, ब्रह्मविहार, करूणा और महाकरूणा इत्यादि की विस्तृत विवेचना की गई है। संघ में महिलाओं के प्रवेश-पश्चात् महिलाओं के ऊपर भी आचरणपरक नियम लागू किए गए। थोड़े-से मतभेद के साथ प्रायः इन्हीं सद्गुणों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान के नाम देकर योग-साधना ने भी अपने यहाँ यम-नियमों के रूप में स्थान दे दिया।

इस विषम परिस्थिति में कर्तव्य-अकर्तव्य के पुनर्निर्धारण की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसलिए अर्जुन और कृष्ण के बीच संवाद के रूप में 'भगवद्-गीता' का प्रणयन द्वारा निष्काम कर्म एवं लोकसंग्रह की अवधारणाओं के माध्यम से ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का समन्वय कर दिया गया। निवृत्तिमार्गी 'ज्ञानयोग' मार्ग की आत्मोपासना करने हेतु तपश्चर्या पर जोर देते थे। जबकि प्रवृत्तिमार्गी 'कर्मयोग' का जोर कर्मोपासना पर था जिसके अनुसार मनुष्य को अपने वर्ण-आश्रम आधृत कर्मों का निर्वाह उन्हें यज्ञ वा कर्तव्य मानकर करना था जिससे आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति हो। श्रीकृष्ण ने 'ज्ञान-कर्म-योग समुच्चय' के साथ ही भक्ति-योग भी जोड दिया जिससे निष्काम भावना के साथ सदाचरण करने का एक सरल मार्ग निकल आया। ज्ञान, संकल्प और इच्छा की मनोवृत्ति से संपन्न सभी जीवात्माओं के लिए कर्तव्य या अकर्तव्य का प्रश्न, श्रेय और प्रेय की समस्या एक प्रकार से हल हो गई।

पौराणिक युग ने वैदिक धर्म में कुछ सुधार कर वर्णाश्रम धर्म को बनाए रखने की कुछ चेष्टा की। किंतु 'गीता' में बताए गए समन्वय तथा सामंजस्य के स्थान पर वैदिक युग की पुनर्स्थापना करने के चक्कर में पुनः कर्मकाण्डों की जटिलता बढने लगी। जैन एवं बौद्ध धर्म के विरोधी मतों के साथ निरंतर संघर्ष चलते रहने के कारण पौराणिक हिन्दू-समाज का ज्यादा ध्यान प्राचीन व्यवस्थाओं को ज्यों के त्यों रखना ज्यादा था। परिणामस्वरूप धरातल पर सुधार नहीं हो पाए और नवीन व्यवस्थाओं की उलझनों और बाह्य आक्रमणों ने हिन्दू समाज को और भी खोखला बना दिया। उस समय न केवल बौद्ध तथा जैन धर्म ही, अपितु स्वयं वैष्णव, शाक्त, शैव - जैसे हिन्दू सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने भीतर अनेक मतभेदों को जन्म दे रखा था।

साथ ही प्राचीन तंत्रमूलक साधना जिनकी चर्चा वेदों व उपनिषदों में भी मिलती है, का निरन्तर विस्तार चलता रहा। वेदाचार, वैष्णवाचार, बौद्ध-तंत्र (अवधूती मार्ग, रागमार्ग, डोंबी मार्ग, चांडाली मार्ग इत्यादि), शक्ति-तंत्र, शैवाचार, वामाचार, दक्षिणाचार, सिद्धांताचार, कौलाचार इत्यादि के द्वारा पृथक पृथक साधनाएँ एवं पद्धतियाँ विकसित हूई। देवदासी जैसी कुप्रथाएं भी प्रचलित हूई। तंत्र-मंत्र, जटिल ध्यान व उपासना पद्धति, जटिल मूर्तिपूजा पद्धति ने सामान्य मनुष्य के जीवन को और भी कठिन बना दिया। अतएव इनके पारस्परिक आडम्बरपूर्ण मतभेदों के कारण विभिन्न पंथ और शाखा एक दूसरे के प्रति द्वेष, कलह या प्रतियोगिता रखते थे और पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन के लिए इन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। इससे कई बार इनमें अनेक प्रकार के झगड़े भी उठ खड़े हुए।

प्रारम्भ में बौद्ध तथा जैन धर्म वस्तुतः सुधारपरक सिद्धांत लेकर चले और उन्होंने बिना किसी प्राचीन ग्रंथ की सहायता लिये, केवल स्वतंत्र विचारों वा अनुभूतियों के आधार पर ही अपने आदर्शों की स्थापना की। लेकिन उच्च वर्ग में पैठ बनाने के लिए एवं कठिन दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादन हेतु अनेक ग्रंथों की रचना संस्कृत भाषा में भी होने लगी। अवतारवाद के प्रभाव से तीर्थंकरों एवं जातक-कथाओं में बुद्ध के विभिन्न अवतारों के आख्यान रचे गए। धर्म का सरल रूप जटिल बन गया और कर्मकाण्ड व आडम्बरों क़ा प्रभाव इन पर भी पड़ा। प्राचीन वैदिक धर्म, जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म की अनेक शाखाएं विकसित होने से कर्तव्य-निर्धारण का प्रश्न महत्वपूर्ण बन गया। ऐसे में इस्लाम जैसे नवान्तुक धर्म ने भारत में प्रचलित विभिन्न पंथों के समक्ष महत्वपूर्ण चुनौती प्रस्तुत की। VAUDEVILLE के अनुसार, "For the first time, historians and chroniclers refer to the local Muslims as 'Hindustanis'. Some converts, such as Mālik Kafür, were occupying the highest positions in the state. The efforts of Muslim missionaries and propagandists, especially Sufis, had begun to bear fruit and a sizeable number of educated Muslim converts were available for the service of the state." [2]

हिन्दु और मुस्लिम संस्कृति के इस परस्पर मेल से कबीर जैसे महान संत का निर्माण हुआ। आज उत्तर भारत की हिंदी भाषी जनता में तुलसी के रामचरितमानस के उपरान्त यदि किसी अन्य कवि का काव्य लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है, तो वह कबीर ही है। कबीर की साखियाँ, उनके पद लोगों को कंठस्थ हैं, जिन्हें वे अनेक अवसरों पर उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत करते हैं। कबीर को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई उसका मूल कारण यह है कि उनके काव्य में शास्त्रीयवाद और कर्माड़म्बर के अहंकार से अलग हटकर तत्कालीन मानव के संघर्षरत जीवन की अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति का खरापन है। उन्हें जो अच्छा लगा उसका खुलकर समर्थन किया और उन्हें जो बुरा लगा उसका विरोध उन्होंने उसी निर्भीकता के साथ किया चाहे इसके लिए उन्हें निर्वासित होना पड़ा। कबीर छुआछूत का जिस प्रकार विरोध करते हैं, वह सीधे दिल को छूता है और हमें पुनः सोचने पर बाध्य करता है। कबीर के शब्दों में, "जल में छूत है, थल में छूत है और किरणों में भी (ग्रहण के अवसर पर) छूत है। जन्म में भी छूत है, और फिर मरने में भी छूत है। इस प्रकार तूने सूतक से जल कर (परज कर) अपना नाश कर लिया। कह तो रे पंडित ! कौन पवित्र है ? मेरा मित्र बन कर ऐसा गाता फिरता है? आँखों में भी छूत है (कहीं शूद्र की दृष्टि न पद जाय) बोली में छूत है (कहीं शूद्र से बात न हो जाय) और कानों मे भी छूत है। (कहीं शूद्र की बात कान में न पड़ जाय)। उठते-बैठते तुझे छूत लगती है। यहाँ तक कि भोजन में भी छूत पहुँच जाती है। इस प्रकार कर्म-बंधन में फँसने की विधि तो सभी कोई जानते है, मुक्त होने की विधि कोई एक ही जानता है। कबीर कहता है कि जा गम को हृदय में विचारते हैं, उन्हें छूत नहीं लगती।" [3]

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