ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में पर्यावरणीय चिन्तन
Author(s): डॉ. बदलू राम
Publication #: 2309006
Date of Publication: 24.04.2023
Country: -
Pages: 1-5
Published In: Volume 9 Issue 2 April-2023
Abstract
आज के वैज्ञानिक युग में मानव अपने क्षणिक भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु सम्पूर्ण प्राकृतिक वातावरण को दूषित करता जा रहा है। वह विभिन्न कारखानों की स्थापना करता जा रहा है। कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा हमारी प्राणदायिनी नदियों के जल को निरन्तर प्रदुषित करता रहता है। इन कारखानों एवं विभिन्न प्रकार की मोटर, गाडियों तथा विमानों आदि से निकलने वाली तीव्र कर्णभेदी आवाज ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि करती रहती है। अधिक उपज की चाह में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के द्वारा लोग पृथ्वी को भी वंध्या करते जा रहे है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित भौतिक सुख के एक साधन रेफ्रिजरेटर से निकलने वाली गैस ने ओजोन परत के क्षय होने का खतरा उत्पन्न कर दिया है, यह खतरा दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित आणविक बम ने सृष्टि के विनाश का खतरा पैदा कर दिया है। वस्तुत: आधुनिक वैज्ञानिकों ने हमें इस समय बारूद के ढेर पर बैठा दिया है, यदि इसमें जरा सी भी चिंगारी लग जाये तो सारी दुनिया क्षण मात्र में नष्ट हो जायेगी । इस आधुनिक विद्या को यदि हम पैशाचिक विद्या की संज्ञा दें तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इतना ही नहीं आज के जैव वैज्ञानिक जो प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कृत्रिम रूप से क्लोन आदि विधियों के द्वारा प्रतिरूपों की रचना कर रहें हैं, वह मानव की पैशाचिक प्रवृत्ति का ही उदाहरण है। यही कार्य रक्तबीज आदि राक्षस भी अपनी पैशाचिक ( मायावी) विद्या द्वारा स्वयं के अनेक प्रतिरूप तैयार कर लिया करते थे।
Keywords:
Download/View Count: 258
Share this Article