भारतीय किसान आंदोलन में गांधीजी का योगदान

Author(s): Durgesh Kumar

Publication #: 2308022

Date of Publication: 18.08.2023

Country: India

Pages: 1-4

Published In: Volume 9 Issue 4 August-2023

Abstract

भारत में अंग्रेजी शासनकाल में भारतीय किसानों और आम जन की दयनीय स्थिति थी। ऐसी स्थिति में चम्पारण मे संघर्ष कर रहें किसानों के लिए एक व्यक्ति ने ऐसे ही मार्गदर्शक का कार्य किया, वह व्यक्ति थे मोहनदास कर्मचंद गाँधी। सन् 1840 में यूरोपीय कोठीवालों ने अधिक लाभ कमाने के लिए नील की खेती करना फायदेमंद समझा क्योंकि उस समय चीनी का व्यवसाय मंदी की ओर था। किसी भी कार्य को करने के लिए हिम्मत, लगन, दृढ निष्चय की अति आवष्यकता होती है तभी जाकर कामयाबी हासिल होती है।यूरोपियों ने तब रामनगर और बेतिया राज्य से चम्पारण में अस्थायी अथवा स्थायी पट्टों की जमीने लेकर अपनी कोठियाँ स्थापित कर, नील की खेती शुरू की। सबसे पहले सन् 1813 में बारा में नील की कोठी खोली गई। अंग्रेज व्यापारियों (निलहे साहब) को राज्य का ऋण चुकाने के लिए राज्य को कुछ तय मालगुजारी देनी होती थी। उत्तर बिहार में दो तरीकों से नील की खेती करवायी जाती थी। पहला तरीका तो यह था कि निलहे साहब अपनी देखरेख में रैयतों से उनके ही हल-बैल की सहायता से खेती करवाते थे और उस समय के प्रचलित कृषि उपकरण स्वयं के लिए रख लेते थे। रैयतों को उनके परिश्रम के बदले में बहुत ही कम मेहनताना दिया जाता था। रैयतों का जीवन निलहे साहबों के गुलामों की तरह हो गया था।

चम्पारण में सबसे अधिक प्रचलित दुसरा तरीका तीन काठिया था। इसमें किसान को लम्बी अवधि तक 20, 25 अथवा 30 वर्ष तक कोठी के खेत में अथवा प्रति बीघा खेत के तीन चौथाई (कट्ठें) में नील उपजना पड़ता था।(3) पहले तो खेती का क्षेत्र पाँच चौथाई में रहता था किन्तु 1867 में इसे चार चौथाई और उसके बाद 1868 में तीन चौथाई कर दिया गया। इसी कारण से इस प्रथा का नाम तीन काठिया हो गया। साटा (किसान और जमींदार के बीच समझौते का दस्तावेज) के अन्तर्गत किसान को नील की खेती करनी होती थी और किसान यह लिखकर देता था कि वह हर साल एक निश्चित रकबे में नील की खेती करेगा और बदले में उसे एक निश्चित रकम पेशगी मिलेगी। केवल बीज कोठीदार देता था बाकि का सारा कार्य, खेत की बुआई से लेकर फसल की कटाई तक, किसान अपने खर्चे से करता था।

एक बीघा खेत में उत्पन्न नील का कितना दाम किसान को दिया जाना है यह साटे में पहले ही तय होता था। जुताई के समय नील के दाम का कुछ हिस्सा किसान को बिना ब्याज के पेशगी के रूप में दिया जाता था किन्तु यह हिस्सा किसान को नगद ना देकर उसके लगान खाते में जमा कर दिया जाता था। नील के दामों को कई वर्षों तक बढाया ही नहीं जाता था जबकि अन्य चीजों के दाम कई गुना बढ़ जाते थे। सबसे अधिक लाभ निलहे को होता था। कभी-कभी तो किसानों को बहुत कम मजदूरी देकर अथवा बिना मजदूरी दिये ही काम करवा लिया जाता था। नील की पैदावार ना होने पर किसान से भारी जुर्माना लिया जाता था। किसानों को स्वयं की जमीन में खेती करने का समय ही नहीं मिल पाता था। यदि कोई किसान इस प्रथा के खिलाफ आवाज उठाता तो उसे कठोरता से दबा दिया जाता था।

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