कविता में बाजारवाद (सन्दर्भ - कुमार अम्बुज की कविताएं)
Author(s): अन्नपूर्णानन्द शर्मा
Publication #: 2307001
Date of Publication: 03.07.2023
Country: India
Pages: 1-6
Published In: Volume 9 Issue 4 July-2023
Abstract
समाज ओर जीवन के प्रति रचनाकार का स्वतंत्र दृष्टिकोण होता है। वह अपने सामाजिक जीवन में घटित होने वाले प्रत्येक कार्यकलाप को सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए देखता रहता है और अपनी कलम के जरिए समाज के नागरिकों को जागरित करने का प्रयास करता है। जब परिवेश की घटनाएं उसे बहुत अधिक आंदोलित कर उद्वेलित करने लगती है, तो वह एक मुहिम का मानस बनाकर अपने विचारों को जनता के समक्ष विस्तारित करता रहता है, जो धीरे - धीरे एक विचारधारा का स्वरूप निर्माण करती है, और जनता के सार्वजनिक जीवन में आन्दोलन का सूत्र स्थापित करते हुए आमजन को जीवन के प्रति आशान्वित बनाती रहती है। कविता की यही सामाजिक उपादेयता भी मानी जाती है कि वह जन को जाग्रत करते हुए अपने दायित्व को निर्वहन करे।
सारा संसार आज बाजार है, व्यापार केन्द्र है। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप पूरे जमाने में जड़ जमा रहे बाजारवाद ने आज सामाजिक जीवन को सभी तरह से संकटग्रस्त बना दिया है। केवल बेचना और खरीदना ही आज का युग धर्म हो रहा है। बाजारवाद के मुनाफा बटोरने की नीति से उत्पन्न उपभोक्तावादी संस्कृति, विज्ञापनवादी संस्कृति, प्रोद्योगिकी संस्कार आदि ने हमारी भारतीय संस्कृति और निजी पहचान का मिटा कर मनुष्य को गहन अन्धकार में पछीटने को तैयार किया जा रहा है। मानव उसकी निजी संवेदना खोकर आत्मकेन्द्रित रह गया है। इतना ही नहीं वह वस्तु के रूप में तब्दील हो गया है। व्यक्ति से वस्तु हो जाने की नियति की स्थिति को स्वीकार करते हुए आज हम प्रायः क्रेता या विक्रेता की संज्ञाओं में सीमित होने के लिए अभिषप्त है। कुमार अंबुज ने अपनी कविताओं में बाजार के मनमोहक मायाजाल में फंसते मानव का चित्रण करके बाजार के वाणिज्य तंत्र का सटीक चित्रण किया है। कवि ने वैश्वीकरण के सुपर बाजार में घुसने के लिए ललचाए हुए मानव का चित्रण करके विलुप्त मानवीयता तथा जर्जर होती जा रही हमारी संस्कृति का जिक्र किया है।
अम्बुज के क्रूरता में संकलित बाजार नामक कविता का एक उदाहरण जिसमें कवि की दृष्टि बाजार में जहां कहीं भी जाती है, वहां भीड़ ही भीड़ नजर आने लगती है। चाहे वह दुकान हो, जनरल कॉस्मेटिक शॉप हो, मेडिकल शॉप हा,े कपडे़ की दुकान हो, मंडी हो या अन्य कोई स्थान सब जगह केवल संवेदनहीन भीड़, अबोध भीड़।
कवि के अनुसार बाजार ऐसी ताकत के साथ मानव पर हमला करता है कि मानव अपनी उपयोगिता से परे संवेदनहीन होकर बस केवल खरीदारी की ओर मोहित होने लगता है -
दुकानें अपनी मस्ती में थी और सजी हुई थीं जवान स्त्रियों की तरह वहाँ लोग उठाए हुए थे बहुत सा सामान अभी कितना कुछ बचा है खरीदने के लिए ऐसा भाव उनके पसीने से लथ पथ शरीर से टपक रहा था वे बाजार बंद हो जाने की आशंका में कह रहे थे भागमभाग।
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