जनजातीय समाज- संवैधानिक प्रावधान एवं विकास के प्रतिमान

Author(s): मेहराब खा

Publication #: 2306013

Date of Publication: 14.01.2022

Country: -

Pages: 1-3

Published In: Volume 8 Issue 1 January-2022

Abstract

भारतवर्ष सदैव से ही सांस्कृतिक वैविध्य एवं बहुलता का धनी देष रहा हैं। भारत की संस्कृति में अपने में विलीनीकरण एवं समायोजन की अद्भूत क्षमता हैं। भारतवर्ष में आदिकाल यथा हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ों काल से जो जातियां निवास करती आ रही हैं वे जनजातीय समाज का अंग हैं। ब्रिटिष काल में इन्हें वंचित वर्ग के नाम से अधिसूचित किया गया हैं। वर्तमान में अनुसूचित जनजाति शब्द आदिवासी लोगों के लिए प्रषासकीय शब्दावली के रूप में स्वीकार किया गया हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान (अनुसूचित जनजाति) अधिनियम 1950 के द्वारा विभिन्न जनजातियों को अधिकारिक रूप से अधिसूचित किया गया। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 86 प्रतिषत जनजातीय जनसंख्या हैं।

भारत के महान संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र भारत के सभी नागरिकों को प्रतिष्ठा एवं अवसर की समता प्रदान करने एवं समान रूप से सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय की प्राप्ति हेतु विषेष रूप से इन अधिकारों से वंचित जनजातीय समाज हेतु अनेक संवैधानिक प्रावधान किये हैं ताकि यह जनजातीय समाज राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके।

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