शक्ति सन्तुलन की अवधारणा की प्रासंगिकता
Author(s): मेहराब खां
Publication #: 2306009
Date of Publication: 21.01.2021
Country: India
Pages: 1-3
Published In: Volume 7 Issue 1 January-2021
Abstract
शक्ति सन्तुलन सिद्धान्त को अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का एक मौलिक सिद्धान्त तथा राजनीति का एक आधारभूत नियम माना जाता हैं। शक्ति सन्तुलन का अभिप्राय यह हैं कि विभिन्न राज्यों की शक्ति दो पक्षों में लगभग समान रूप से बंटी रहे, कोई भी एक पक्ष या एक राज्य अन्य राज्यों पर हावी न हो, इतना शक्तिषाली न हो कि वह दूसरे पर हमला करने, उसे दबाने या हराने में समर्थ हो। जिस प्रकार एक तुला के दो पलड़े समान भार होने पर सन्तुलित बने रहते हैं, उसी प्रकार की साम्यावस्था विभिन्न राज्यों में संधियों द्वारा बनी रहनी चाहिए। कोई एक देष अन्य राज्यों से अधिक शक्तिषाली नहीं होना चाहिए। यदि कोई देष अन्य देषों की तुलना में अधिक शक्तिषाली होता हैं तो वह उनके लिए संकट का कारण बन जाता हैं।
स्वतंत्रता, शांति, स्थिरता तथा सार्वजनिक सुरक्षा के लिए शक्ति सन्तुलन आवष्यक हैं, क्योंकि एक निष्चित सीमा के बाद एक राज्य की बढ़ती हुई शक्ति अन्य सभी राज्यों को प्रभावित करने लगती हैं, इतना ही नहीं एक राज्य का अत्यधिक शक्तिषाली होने का अर्थ हैं अन्य राज्यों का विनाष। पडौसी राष्ट्रों में स्थिरता तथा शान्ति स्थापित करने का केवल एक ही उपाय हैं कि सब राष्ट्रों की शक्ति करीब-करीब समान हो।
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